Friday 25 January 2013

अस्तित्व की खातिर :
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जंगल राज में हर कोई जुटा है 
अपने अस्तित्व की रक्षा में । 
क्योंकि सबल नौंच खाने को 
आतुर है हर निर्बल को 
और निर्बल भयातुर है 
अपनी प्राण रक्षा के लिए ।
सृष्टि का अस्तित्ववादी सिद्धांत 
हर ओर अपना असर दिखा रहा है 
समाज में पग-पग पर आदमी को 
उसका अस्तित्व बता रहा है ।।
- डॉ.सुधाकर आशावादी 

महंगाई से साक्षात्कार 
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- डॉ.सुधाकर आशावादी 
एक दिन मैंने महंगाई से पूछा -
तुम्हारा आकार क्या है ?
तुम्हारी बढ़ोत्तरी का प्रतिशत क्या है ? 
तुम्हारी कोई सीमा तो होगी ?
वह मुस्करा कर बोली -
मेरा आकार मैं स्वयं नहीं जानती 
अपनी सीमा मैं नहीं पहिचानती ।
मैं बढ़ रही हूँ तब तक  
जब तक मुझे सहजता से 
स्वीकारा जा रहा है  
सो मैं बढ़ती रहूँगी 
नहीं थमूंगी ।
फिर भी मेरा वजूद जानना है 
तो उस दिहाड़ीदार मजदूर से पूछिए 
जो रोज अपने श्रम का सौदा करके 
अपनी देह खून्दता है 
और दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाता ।
जब उसे अपने श्रम का 
सही मोल मिल जायेगा 
और वह दो वक्त की रोटी चैन से खायेगा 
तब समझना मेरा वजूद 
स्वतः ही ख़त्म हो जायेगा ।। 
- डॉ.सुधाकर आशावादी 

चिंतन-कविता :
मर्यादा लाँघते प्रश्न   
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- डॉ.सुधाकर आशावादी 
एक प्रश्न बार बार 
मस्तिष्क में घुमड़ता है 
मर्यादित आचरण आखिर 
क्यों कर बार बार अपना अर्थ दोहराता है 
आम आदमी की स्वतंत्रता पर 
अंकुश क्यों लगाता है 
जबकि -
मर्यादा स्वयं में है 
जीवन की आधारशिला 
यह नहीं है कोई बंधन 
यह है जीने की कला और सदाचरण ।
तथापि -
कोई बता रहा है इंडिया और भारत में अंतर 
कोई दे रहा है लक्ष्मण रेखा न लाँघने की सीख ।
मगर सब यह भूल रहे हैं कि -
अब रामराज्य नहीं / कलियुगी राज्य है 
जहाँ झूठ फरेब और स्वार्थ परता का  
मर्यादा में रहने की सीख अब किसे सुहाती है ।
अब तो मर्यादा काट खाने को आती है ।
कौन चाहता है कि वह रहे 
सीमाओं के बंधन में / मर्यादा के बंधन में 
स्त्री हो या पुरुष 
समाज में मर्यादा से ही उसकी पहिचान है 
अन्यथा मर्यादाविहीन आचरण से 
मानव मानव नहीं दरिंदा सामान है ।
फिर भी उसे स्वीकार नहीं मर्यादित बंधन 
वह चाहता है करना स्वच्छंद आचरण 
तभी तो वह बंधन लाँघकर 
अपनी सीमाएं तोड़ता है 
और बदले में पाता है 
अमर्यादित आचरण दरिंदगी 
और दुर्व्यवहार 
वह नहीं सीख पाता 
नदी / समुद्र के मर्यादित आचरण लाँघने का 
निष्कर्ष रुपी उपसंहार  
जो अपनी सीमायें लाँघकर 
प्रकृति को सौंपते हैं बाढ़ एवं प्रलय सरीखी 
विभीषिका ।।

Friday 18 January 2013


जहाँ लोगों पर अपना घर संभालना भारी पड़ता है,वहाँ देश सँभालने की बात बहुत बड़ी है । भारत वैसे ही विषमताओं का देश है, कॉंग्रेस हो या भाजपा यदि महंगाई पर अंकुश नहीं लगा सकते या अलगावी चिंतन से देश को निजात नहीं दिला सकते,तो चाहे कितने ही चिंतन कर लें ,सभी निरर्थक हैं ।
- आशावादी