चिंतन-कविता :
मर्यादा लाँघते प्रश्न
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- डॉ.सुधाकर आशावादी
एक प्रश्न बार बार
मस्तिष्क में घुमड़ता है
मर्यादित आचरण आखिर
क्यों कर बार बार अपना अर्थ दोहराता है
आम आदमी की स्वतंत्रता पर
अंकुश क्यों लगाता है
जबकि -
मर्यादा स्वयं में है
जीवन की आधारशिला
यह नहीं है कोई बंधन
यह है जीने की कला और सदाचरण ।
तथापि -
कोई बता रहा है इंडिया और भारत में अंतर
कोई दे रहा है लक्ष्मण रेखा न लाँघने की सीख ।
मगर सब यह भूल रहे हैं कि -
अब रामराज्य नहीं / कलियुगी राज्य है
जहाँ झूठ फरेब और स्वार्थ परता का
मर्यादा में रहने की सीख अब किसे सुहाती है ।
अब तो मर्यादा काट खाने को आती है ।
कौन चाहता है कि वह रहे
सीमाओं के बंधन में / मर्यादा के बंधन में
स्त्री हो या पुरुष
समाज में मर्यादा से ही उसकी पहिचान है
अन्यथा मर्यादाविहीन आचरण से
मानव मानव नहीं दरिंदा सामान है ।
फिर भी उसे स्वीकार नहीं मर्यादित बंधन
वह चाहता है करना स्वच्छंद आचरण
तभी तो वह बंधन लाँघकर
अपनी सीमाएं तोड़ता है
और बदले में पाता है
अमर्यादित आचरण दरिंदगी
और दुर्व्यवहार
वह नहीं सीख पाता
नदी / समुद्र के मर्यादित आचरण लाँघने का
निष्कर्ष रुपी उपसंहार
जो अपनी सीमायें लाँघकर
प्रकृति को सौंपते हैं बाढ़ एवं प्रलय सरीखी
विभीषिका ।।