Friday 25 September 2015

व्यंग्य :
चरणवंदना में निहित सम्मान 
- सुधाकर आशावादी 
संसार में यश कामना भला कौन नहीं करता ? जिसे देखो वही सम्मान प्रदाताओं की यशगाथा की स्तुति में पीछे नहीं है। भले ही स्वयं को निरपेक्ष भाव से निर्लोभी बताता फिरे, मगर सम्मान की भूख उसके भीतर कुलबुलाती रहती है। साहित्य का मंच हो या सियासत का, ऐसा कौन होगा जो अपार जनसमूह के समक्ष बड़ी माला नहीं पहनना चाहेगा, प्रतीक चिन्ह और सम्मान प्रमाण से परहेज करेगा , भीषण गर्मी में भी शॉल और श्रीफल को नकारेगा। यश कामना की भूख ऐसे है जो कभी मिटती ही नहीं। 
अपने राम खिलावन अरसे से एक ही साध रही , कि जैसे भी हो, उनकी साहित्य साधना को राजकीय स्तर पर स्वीकारा जाय । उन्हें भी यशस्वी पुरुस्कार से नवाजा जाय। जब से उनकी परम शिष्या को साहित्य साधिका का सम्मान मिला तथा सम्मान राशि के साथ साथ शॉल, श्रीफल और सम्मान प्रमाण मिला, तब से उनके भीतर बसे साहित्यकार का अहम जागृत हो गया था, वह सम्मान प्राप्त करने की दिशा में विचार करने लगे थे साथ ही आत्मविश्लेषण भी कर रहे थे, कि यदि मेरे लिखे साहित्य के आधार पर मेरी शिष्या को साहित्य साधिका सम्मान मिल सकता है , तो मुझे क्यों नहीं ? तभी से सम्मान प्राप्त करने वाले साहित्यकारों की विशिष्टता का अध्ययन करना शुरू कर दिया था रामखिलावन जी ने। यह अलग बात थी कि इस विश्लेषण में उनकी स्वयं की साहित्य साधना भी प्रभावित हो गयी थी। उन्हें कहीं से यह ज्ञात हो गया कि साहित्य सम्मान प्राप्त करने के लिए साहित्य का साधक होना अनिवार्य नहीं है। अनिवार्य है पुरुस्कार प्रदाता सत्ता से घनिष्ठता बढ़ाना। ऐसे लोगों की खोज करना जो सत्ता के इर्दगिर्द अपना जाल फैलाये रखते हैं तथा साहित्य सम्मान और साहित्यकार के बीच की दूरी पाटने में सेतु की भूमिका का निर्वाह करते हैं। इस लिए अपने साहित्यिक दम्भ को त्यागकर चरण वंदना भी करनी पड़े तो उससे परहेज नहीं होना चाहिए।  बस तभी से रामखिलावन ने सम्मान प्राप्ति के लिए एकसूत्रीय लक्ष्य निर्धारित कर लिया, कि भले ही कितने पापड़ बेलने पड़े, अपने स्वाभिमान और साहित्यिक दम्भ की बलि देनी पड़े मगर यशस्वी सम्मान पप्राप्त करके ही रहेंगे। 
रामखिलावन के जीवन में आखिर वह अवसर आ ही गया, जिसकी प्रतीक्षा में उन्होंने साहित्य सृजन में स्वयं को खपाया था, अपनी रचनाओं के आधार पर शिष्या को मिले साहित्य साधिका सम्मान की कुढ़न को भोगा था। ऐसे में वह इतने गदगद थे,कि सम्मान प्रदाता उन्हें उस गोविन्द की भांति प्रतीत हो रहा था , जिसे सम्मान के जुगाड़कर्ता गुरु की चरणवंदना के उपरान्त प्राप्त किया था। सो जैसे ही उन्हें शॉल ओढ़ाया गया , उनके हाथ में श्रीफल के साथ सम्मान राशि और सम्मान प्रमाण दिया गया , वैसे ही उन्हें अपने जीवन भर की साहित्य साधना सफल होती प्रतीत हुई तथा वे सम्मान प्रदाता गोविन्द के चरणों में झुक गए। जिन्हें साहित्य साधना के उपरान्त भी ऐसा सम्मान उपलब्ध नहीं था , उन्हें खीज मिटानी अनिवार्य थी , सो वे चरणवंदना में ही खोट निकालने लगे।  उन्हें इस बात का कतई भान नहीं था कि यह सम्मान चरणवंदना की लम्बी साधना का ही प्रतिफल है। 

Thursday 26 February 2015

सियासी रिश्तों के चलते नीरव मोदी PNB को चूना लगा गया, जिनके शासनकाल में यह घोटाला हुआ , वही इस घोटाले पर अंगुली भी उठा रहे हैं . यानि उल्टा चोर कोतवाल को डांट रहा है. यह अवसर देश की संपदा को नुकसान पहुँचाने वालों को सबक सिखाने का है, न कि अपनी कमी औरों के मत्थे मढ़कर सनसनी फ़ैलाने का .
@ सुधाकर आशावादी