Friday 31 August 2018

लेखन किसी की बपौती नहीं है . अनुभूतियाँ प्रत्येक प्राणी के पास हैं, किन्तु उनकी कुशल अभिव्यक्ति एक अच्छे साहित्यकार की पहिचान है .
- सुधाकर आशावादी

किसी की याद में मैं क्या लिखूं
खो गया हूँ आजकल उन्हीं में .

Tuesday 6 March 2018

सियासत में ईमानदारी की बात आजकल बेमानी है। सामाजिक व्यवहार में मूल्यों का हरास इस समस्या के मूल में है। विडंबना यह है कि जैसे को तैसा के फेर में दिशानायक भी जब प्रतिकूल आचरण करते हैं, तब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या देश को अपने संकीर्ण स्वार्थों की बलिवेदी पर चढ़ाना न्यायसंगत है ?
- सुधाकर आशावादी

Friday 16 February 2018

भूख से अधिक खाने की चाहत में
तलाशता हूँ मैं खाने के अनेक स्रोत
मगर कोई अवसर ही नहीं मिलता
भ्रष्टता की ओर अग्रसर होने का .
@ सुधाकर आशावादी

Thursday 15 February 2018

सत्ता से दूरी और विपक्षी सियासत उल्टा चोर कोतवाल को डांटे जैसी स्थिति उत्पन्न कर रही है. नीरव मोदी विजय माल्या के उपरांत दूसरा नाम है, जिसने देश की अर्थव्यवस्था से खिलवाड़ किया है. जरूरी है कि दोषियों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाए .
@ सुधाकर आशावादी

Wednesday 7 February 2018

विकल्पहीन सियासत लोकतंत्र को कहाँ ले जाएगी , कोई नहीं जानता . देश का दुर्भाग्य यही है कि सियासत केवल गड़े मुर्दे उखाड़ने में जुटी रहती है . तथाकथित विपक्ष अपनी कमजोरी जानते हुए भी सकारात्मक बातें करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता . सीना तानकर कुछ नहीं बोल सकता , पग पग पर उसका चोर मन उसे नजरें झुकाने को विवश करता है , वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता सिवाय बेशर्मी दिखाने के .
@ सुधाकर आशावादी

Tuesday 6 February 2018

जिन पर शिक्षा सुधार का दायित्व है , वही शिक्षा का बंटाधार कर रहे हैं . शिक्षक शिक्षा पाठ्यक्रमों की गुणवत्ता के लिए जिस राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद का गठन किया गया , वह भी धन की बंदरबांट तक सिमट कर रह गई . यकीन न आये तो इसके द्वारा शिक्षक शिक्षा पाठ्यक्रमों की मान्यता की सभी पत्रावलियों की किसी गोपनीय एजेंसी से जांच करा कर देख लें . दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा .
@ सुधाकर आशावादी

Friday 2 February 2018

जी भरके चिल्लाए जैचंद बड़ी हवेली में
आँसू भर भर लाए जैचंद बड़ी हवेली में.
कासगंज की अमन शान्ति को तजकर
अपनी जात दिखाएं जैचंद बड़ी हवेली में.
@ सुधाकर आशावादी

Wednesday 31 January 2018

साहित्य के अलंबरदारों ने साहित्य को भी बंधक बनाने का दिवास्वप्न देखा है . खेमेबंदी ने साहित्य की दिशा और दशा को खास दड़बों तक सीमित कर दिया है . चाहे साहित्य की कोई भी विधा हो, मगर अलम्बरदार हैं कि अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने की जुगत में जुटे रहते हैं .
@ सुधाकर आशावादी

Tuesday 9 January 2018

एक समय था, जब किताबें आम पाठक के लिए प्रकाशित की जाती थी , बिकती भी खूब थी, तब प्रकाशक गिने चुने लेखकों की पुस्तकें छाप कर अधिक मुनाफा नहीं कमाते थे । अब किताबें नही बिकती, जुगाड़ से खपाई जाती हैं, किताबें आम पाठक की पहुँच से बाहर हैं । 96 पेज की पुस्तक 200 रूपये, 192 पेज की पुस्तक 400 रूपये में भला कौन खरीदकर पढ़ेगा ? कुछ मौलिक स्वनाम धन्य लेखक तथा कुछ पैसे देकर अपने नाम से पुस्तक लिखाने वाले तथाकथित लेखक पैसे देकर पुस्तकें छपवाते हैं। आजकल पुस्तकें खूब छप रही हैं। पुस्तक मेला विमोचन का केंद्र बना हुआ है । मुनाफा पुस्तक बिक्री में नही, पुस्तकें छापने में ही अधिक लगता है । लेखक भी खुश और प्रकाशक भी । सब अपने में मस्त । आम पाठक तक पुस्तक पहुँचे न पहुँचे, स्वान्तः सुखाय और स्वान्तः छपाय के साथ फेसबुक पर फोटो चिपकाय का अलग ही आनन्द है । खैर साहित्य तो समृद्ध हो ही रहा है .
@ सुधाकर आशावादी