एक समय था, जब किताबें आम पाठक के लिए प्रकाशित की जाती थी , बिकती भी खूब
थी, तब प्रकाशक गिने चुने लेखकों की पुस्तकें छाप कर अधिक मुनाफा नहीं
कमाते थे । अब किताबें नही बिकती, जुगाड़ से खपाई जाती हैं, किताबें आम पाठक
की पहुँच से बाहर हैं । 96 पेज की पुस्तक 200 रूपये, 192 पेज की पुस्तक
400 रूपये में भला कौन खरीदकर पढ़ेगा ? कुछ मौलिक स्वनाम धन्य लेखक तथा कुछ
पैसे देकर अपने नाम से पुस्तक लिखाने वाले तथाकथित लेखक पैसे देकर पुस्तकें
छपवाते हैं। आजकल पुस्तकें खूब छप रही हैं। पुस्तक मेला विमोचन का केंद्र
बना हुआ है । मुनाफा पुस्तक बिक्री में नही, पुस्तकें छापने में ही अधिक
लगता है । लेखक भी खुश और प्रकाशक भी । सब अपने में मस्त । आम पाठक तक
पुस्तक पहुँचे न पहुँचे, स्वान्तः सुखाय और स्वान्तः छपाय के साथ फेसबुक पर
फोटो चिपकाय का अलग ही आनन्द है । खैर साहित्य तो समृद्ध हो ही रहा है .
@ सुधाकर आशावादी