Friday 15 November 2013

माँ -बेटा इटली वाले मामा से पैसा लाकर घर का खर्च चलाते हैं ,कुछ पैसा गरीबों में बांटते भी हैं ? चाय वाला प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब कैसे देख सकता है ? गरीब को महँगाई की आग में झौंकने वाला पंजा खूनी कैसे हो सकता है ? सियासत ने अपने तोते से किस किस का फायदा कराया ? आम आदमी इन आदमखोर भेड़ियों से कैसे बचे ? क्या इन सवालों के ज़वाब किस किस के पास हैं ?
- सुधाकर आशावादी

Saturday 9 November 2013

सर्व शिक्षा में कैसा विभेद ?

देश का निर्माण उत्तम संस्कारों की आधाशिला पर किया जाता है। संस्कार बचपन से ही बालकों के आचरण में भरे जाते हैं। विवशता यह है कि देश की सियासत ने शिक्षा में भी सियासत की घुसपैठ कराकर मानवता एवं समानता के स्थान पर अलगाववाद का बीजारोपण कर दिया है। जब शिक्षा में ही अलगाव का विष भरा जायेगा तथा बालकों में संकीर्ण मानसिकता के आधार पर विभेद किया जायेगा, तब संस्कारों की नींव कैसे सुदृढ़ हो सकती है ?
- आशावादी 

Tuesday 5 November 2013

Ashawadi Post: किसी भी एक भूभाग पर रहने वालों में अपने भूभाग के प...

Ashawadi Post: किसी भी एक भूभाग पर रहने वालों में अपने भूभाग के प...: किसी भी एक भूभाग पर रहने वालों में अपने भूभाग के प्रति जो समर्पण की भावना होती है , उसे ही शायद राष्ट्रभक्ति की संज्ञा दी जाती है , मगर भार...

Ashawadi Post: किसी भी एक भूभाग पर रहने वालों में अपने भूभाग के प...

Ashawadi Post: किसी भी एक भूभाग पर रहने वालों में अपने भूभाग के प...: किसी भी एक भूभाग पर रहने वालों में अपने भूभाग के प्रति जो समर्पण की भावना होती है , उसे ही शायद राष्ट्रभक्ति की संज्ञा दी जाती है , मगर भार...
किसी भी एक भूभाग पर रहने वालों में अपने भूभाग के प्रति जो समर्पण की भावना होती है , उसे ही शायद राष्ट्रभक्ति की संज्ञा दी जाती है , मगर भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश में राष्ट्रभक्ति से पहले न जाने कैसी कैसी भक्तियां और विप्लवकारी अभिव्यक्तियों का साम्राज्य है ,जिनसे लगता है कि राष्ट्र से पहले जनमानस के स्वार्थ हैं। कोई भी देश की एकता और अखंडता की बात नहीं करता , बल्कि संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति हेतु कुचक्र रचता रहता है। विडंबना यही है कि हम अपने कुतर्कों के चलते अपनी मानवीय सोच को भी अमानवीय बनाने में पीछे नहीं हैं।
-सुधाकर आशावादी
मंगल और अमंगल जीवन में आते रहते हैं
पर मंगल की कामना में हम हर्षाते रहते हैं
देश करे अभिमान सो मंगल यान चला है
मंगलमय हो अभियान यही पैगाम भला है। 
- सुधाकर आशावादी

Sunday 18 August 2013

एक चिंतन :
देश में आरक्षण की सियासत भले ही कुछ मौकापरस्तों के लिए मुनाफे का सौदा हो,मगर जातियों के नाम पर आरक्षण मांगने वालों को यह मानसिक रूप से विकलांग बना रही है। उन्हें अपने क्षणिक स्वार्थ तो इसमें दिखाई दे रहे हैं , मगर अपनी अक्षमता सिद्ध करके वह क्या हासिल करना चाहते हैं , यह हर किसी बुद्धिजीवी की समझ से परे है।
- सुधाकर आशावादी 

Sunday 2 June 2013

समाज किधर जा रहा है, रिश्तों की परिभाषाएं कैसे बदलती जा रही हैं, पुरातन नैतिकता के मूल्य किस प्रकार अपने अर्थ खोते जा रहे हैं ? यह चिंतनीय एवं विचारणीय बिंदु है । भौतिक जगत में देह एवं देह-जनित सम्बन्ध सर्वोपरि होते जा रहे हैं, मर्यादाएं अपनी ही सीमाओं में सिमटकर संकुचित होती जा रही हैं । ऐसे में प्रश्न यही उत्पन्न होता है - भारत भूमि आखिर क्यों अपनेपन से बंजर होती जा रही है ?
- सुधाकर आशावादी 

Thursday 23 May 2013

सुप्रभात:
मैं नहीं कहता किसी से डर 
यदि डरना है तो अपने आप से डर । 
ज़वाबदेही है नहीं तेरी और किसी के लिए 
ज़वाब देना है हर पल तुझे अपने आप को ॥ 
- सुधाकर आशावादी 

Sunday 12 May 2013

कभी फेसबुक कभी भेषबुक
तन्हाई है ...कहाँ जाऊं ? 
छुट्टी है कि कटने का नाम नहीं ले रही । 
लोग परेशान हैं कि उनके पास समय नहीं 
मैं परेशान हूँ कि समय का सदुपयोग कैसे करूँ ?
सुबह से कागज काले कर रहा हूँ ......और क्या करूँ ?
- सुधाकर आशावादी 

Tuesday 7 May 2013

एक विचार :
कभी कभी कुछ नया करने के लिए मन करता है,मगर विचारणीय है कि संसार में नया क्या है, जो भी है,वह विद्यमान है, लगभग सौ बरस पहले जो कहानियां कालकूट ने लिखी वे आज भी प्रासंगिक हैं । किसी ने सच ही कहा है कि कथानक वही रहते हैं,मगर पात्र बदलते रहते हैं । जो विद्यमान है वही तो हम प्राप्त कर रहे हैं । ज्ञान के सागर में गोते लगाने का जो आनंद है,सम्भवत: वह आनंद भौतिक सुखों में भी नहीं है,क्योंकि ज्ञान के सागर में स्नान करके मानसिक द्वार संकीर्णता में सिमटकर नहीं रह सकते । ऐसा मेरा मत है । संकीर्णताएं वहीँ प्रवेश कर सकती हैं , जहाँ व्यक्ति अपनी समझ के द्वार बंद करके पूर्वाग्रह के द्वार खोल कर रखता है ।
- सुधाकर आशावादी 

Sunday 3 March 2013

भाजपा मोदी के कद के सम्मुख बौनी हो चुकी है, सिर्फ भाजपा ही नहीं कॉन्ग्रेस भी परेशान है , उसे अपने दिग्गजों की टीम में कोई भी मोदी के मुकाबले हेतु नहीं मिल रहा है । महँगाई और घोटालों की पर्याय बनी कॉन्ग्रेस की मुसीबत कम होने का नाम नहीं ले रही है, सो वह अब देश के आम आदमी की चिन्ता छोड़ कर अपने स्वार्थ सिद्ध करने में जुट गयी है ।
-सुधाकर आशावादी 

Monday 4 February 2013

बज़ट का नाम लेकर हमको डराते क्यों हो 
जब बिना बज़ट के ही हमको लूट लेते हो ।
देश में अब किसको रहनुमा कहे अपना 
जिसे रहनुमा समझा वही रहजन निकला ।
- आशावादी 
किसी को अपना बना लो
या किसी के हो जाओ
जिंदगी के हसीन लम्हे
व्यर्थ न गंवाओं ।
- आशावादी 

Sunday 3 February 2013

देश के भावी प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी का नाम प्रस्तावित होने की सम्भावना मात्र से ही सियासत के दिग्गजों में बौखलाहट शुरू हो जाती है, भाजपा भी धर्म संकट में हैं ,क्योंकि उसके भी कुछ दिग्गजों के पैरों तले से जमीन खिसक रही है । यदि मोदी का नाम प्रस्तावित हुआ तो अवश्य ही भाजपा का ग्राफ ऊपर जायेगा ,सो अधिक विलम्ब क्यों ...कम से कम सियासती चोरों से तो निजात मिलेगी ।
- सुधाकर आशावादी 

Friday 25 January 2013

अस्तित्व की खातिर :
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जंगल राज में हर कोई जुटा है 
अपने अस्तित्व की रक्षा में । 
क्योंकि सबल नौंच खाने को 
आतुर है हर निर्बल को 
और निर्बल भयातुर है 
अपनी प्राण रक्षा के लिए ।
सृष्टि का अस्तित्ववादी सिद्धांत 
हर ओर अपना असर दिखा रहा है 
समाज में पग-पग पर आदमी को 
उसका अस्तित्व बता रहा है ।।
- डॉ.सुधाकर आशावादी 

महंगाई से साक्षात्कार 
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- डॉ.सुधाकर आशावादी 
एक दिन मैंने महंगाई से पूछा -
तुम्हारा आकार क्या है ?
तुम्हारी बढ़ोत्तरी का प्रतिशत क्या है ? 
तुम्हारी कोई सीमा तो होगी ?
वह मुस्करा कर बोली -
मेरा आकार मैं स्वयं नहीं जानती 
अपनी सीमा मैं नहीं पहिचानती ।
मैं बढ़ रही हूँ तब तक  
जब तक मुझे सहजता से 
स्वीकारा जा रहा है  
सो मैं बढ़ती रहूँगी 
नहीं थमूंगी ।
फिर भी मेरा वजूद जानना है 
तो उस दिहाड़ीदार मजदूर से पूछिए 
जो रोज अपने श्रम का सौदा करके 
अपनी देह खून्दता है 
और दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाता ।
जब उसे अपने श्रम का 
सही मोल मिल जायेगा 
और वह दो वक्त की रोटी चैन से खायेगा 
तब समझना मेरा वजूद 
स्वतः ही ख़त्म हो जायेगा ।। 
- डॉ.सुधाकर आशावादी 

चिंतन-कविता :
मर्यादा लाँघते प्रश्न   
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- डॉ.सुधाकर आशावादी 
एक प्रश्न बार बार 
मस्तिष्क में घुमड़ता है 
मर्यादित आचरण आखिर 
क्यों कर बार बार अपना अर्थ दोहराता है 
आम आदमी की स्वतंत्रता पर 
अंकुश क्यों लगाता है 
जबकि -
मर्यादा स्वयं में है 
जीवन की आधारशिला 
यह नहीं है कोई बंधन 
यह है जीने की कला और सदाचरण ।
तथापि -
कोई बता रहा है इंडिया और भारत में अंतर 
कोई दे रहा है लक्ष्मण रेखा न लाँघने की सीख ।
मगर सब यह भूल रहे हैं कि -
अब रामराज्य नहीं / कलियुगी राज्य है 
जहाँ झूठ फरेब और स्वार्थ परता का  
मर्यादा में रहने की सीख अब किसे सुहाती है ।
अब तो मर्यादा काट खाने को आती है ।
कौन चाहता है कि वह रहे 
सीमाओं के बंधन में / मर्यादा के बंधन में 
स्त्री हो या पुरुष 
समाज में मर्यादा से ही उसकी पहिचान है 
अन्यथा मर्यादाविहीन आचरण से 
मानव मानव नहीं दरिंदा सामान है ।
फिर भी उसे स्वीकार नहीं मर्यादित बंधन 
वह चाहता है करना स्वच्छंद आचरण 
तभी तो वह बंधन लाँघकर 
अपनी सीमाएं तोड़ता है 
और बदले में पाता है 
अमर्यादित आचरण दरिंदगी 
और दुर्व्यवहार 
वह नहीं सीख पाता 
नदी / समुद्र के मर्यादित आचरण लाँघने का 
निष्कर्ष रुपी उपसंहार  
जो अपनी सीमायें लाँघकर 
प्रकृति को सौंपते हैं बाढ़ एवं प्रलय सरीखी 
विभीषिका ।।

Friday 18 January 2013


जहाँ लोगों पर अपना घर संभालना भारी पड़ता है,वहाँ देश सँभालने की बात बहुत बड़ी है । भारत वैसे ही विषमताओं का देश है, कॉंग्रेस हो या भाजपा यदि महंगाई पर अंकुश नहीं लगा सकते या अलगावी चिंतन से देश को निजात नहीं दिला सकते,तो चाहे कितने ही चिंतन कर लें ,सभी निरर्थक हैं ।
- आशावादी