Monday 22 September 2014

अंतर्राष्ट्रीय जगत में व्यक्ति की पहिचान समाज से चिन्हित है।  समाज के बिना व्यक्ति के वैयक्तिक चरित्र एवं समाज के प्रति उसके योगदान की समीक्षा नहीं की जा सकती।  प्रश्न उत्पन्न होता है कि समाज कैसा होना चाहिए और समाज कैसा है ? निसंदेह दोनों में भेद है। समाज अपना सामाजिक उत्तरदायित्व भूलकर केवल स्वार्थ की परिभाषाएं गढ़ने में जुटा है। सब अपने स्वार्थ की बोली बोलने में ही अपना भला समझ रहे हैं। प्रश्न यह है कि समाज के बिना जब सुविधायुक्त जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती , तब हम समाज में स्वार्थ का तानाबाना बुनकर समाज को वैमनस्य , अलगाववाद और हिंसा की आग में झोंकने पर क्यों आमादा हैं ?
- सुधाकर आशावादी

Friday 19 September 2014

हिंदी सप्ताह का सातवां दिवस :
बोलियों में बंटा आज संसार है
भाषा बोली में सिमटा घर-बार है
एक होना है तो सब यही जान लें
हिन्दी भाषा नहीं एकता सार है।
- सुधाकर आशावादी

Thursday 18 September 2014

क्या कहूँ कौरवों की गाथा :


कई बार सोचता हूँ कुछ न कहूँ , किन्तु विचार होते ही विश्लेषण के लिए हैं। पूर्वाग्रह और दुराग्रह एक दूसरे के इतने निकट हैं कि पहचानना कठिन है। समाज है तो सभी कुछ हैं।  समाज के अभाव में कैसा पूर्वाग्रह और दुराग्रह। सभी को खाना कमाना है। राजनीति में मिशन,पाँच सितारा संत आश्रमों में मिशन की कल्पना असंभव है ,समाजवाद भी अपने घर की यश और धन की भूख मिटाने के बाद शुरू होता है। बेचारे राम मनोहर लोहिया जी बुत बने देखने को विवश हैं , कि उनका नाम लेकर न जाने कौन सा समाजवाद लाया जा रहा है। कई बार मुझे अपने विद्रोही मित्र केशव जैन केश [ जो वायुसेना से सेवानिवृत्ति के उपरांत पत्रकारिता से जुड़े थे ] का क्रोध याद आता है कहता था - मन करता है कि हाथ में स्टेन गन लेकर घूमूँ , जो भी सड़क पर कायदे कानूनों का उल्लंघन करता मिले उसे ही शूट कर दूँ। निसंदेह राजनीति के दरिंदों ने देश को जहाँ लाकर खड़ा किया है , उससे लगता है कि समाज की प्रयोगशाला में कौरवों की संख्या असल से हज़ारों गुना बढ़ चुकी है।
- सुधाकर आशावादी
देश सिर्फ सीमाओं से नहीं बनता , सीमाओं के मध्य रहने वाले नागरिकों की राष्ट्र के प्रति समर्पित भावना से बनता है। देश का दुर्भाग्य यही है कि देश में आम आदमी का सियासी बटवारा हो चुका है ,जातीय समीकरण देश को जर्जर कर रहे हैं।  समाजवाद खानदान विशेष की बपौती बन चुका है। जाति और धर्म के ठेकेदार आम आदमी को अपनी बपौती मानने में कोई संकोच नहीं करते। ऐसे में भारतीय लोकतंत्र कितना समृद्ध है , यह किसी से छिपा नहीं है।
 सुधाकर आशावादी